Tuesday, January 29, 2013

हार्बर लाइन


हार्बर लाइन

वह जो अंधेरी के भीड़ से बिलबिलाते प्लेटफॉर्म पर पहुँचकर,
डायल करती है हर रोज वह दस डिजिट के नंबर,
अपनी मोबाईल के की-पैड को अनायास ही दबाते हुए,
नहीं कहती है हैलो,  बस रिंग-टोन के बजते ही हो उठती है बेचैन,
क्यों नहीं मिल रहा है जवाब, परेशान सी है
कहीं नौ-तैंतीस की पनवेल लोकल छूट न जाए,
और वही घिसे-पिटे वाक्य बुदबुदाती है... 
कहां हो? नहीं पहुँचे? ट्रेन लग गई है...
बाय...बस मोबाईल बंद और पर्स के भीतर।
यही सिलसिला है... रोज का महीनों से...
पनवेल लोकल के लगते ही लेडिज बोगी के ठीक नेक्स्ट बोगी पर,
खिड़की से सटकर बैठे हुए एक दूसरे की नज़रो में घुस जाते हैं...
बीच-बीच में कुछ बुदबुदाते भी है, बैग से बोतल निकालकर बुझाते हैं अपनी प्यासकृ
पर क्या करें... इतनी भीड़ हैं नहीं बुझा सकते अपनी वह प्यास,
जिसके लिए यह भागम-भाग शुरू हुई है...
दौड़ जारी है... लोकल की भी और ज़िंदगी की भी... 
इस उम्र के क्षणिक जोश की भी... विलेपार्ले से सांताक्रूसकृ
बांद्रा से वड़ाला... कुर्ला से मानखुर्द.. वाशी से बेलापुर...
और बस, इतने में ''ठीक है मै जाता हूँ, बेलापुर आ गया।,
शाम की छः बारह की लोकल पकड़ना...`` ''ओके बाय..``
''बाय..`` लोकल की रफ्तार में ओझल हो चला है उसका प्यार...
अकेले उतरती, पनवेल की सीढ़ीयो में कदम रखती,
बस यही सोच रही है कब ऑफिस की छुट्टी होगी...
और वह छः बारह की लोकल में फिर जी पाएगी अपनी जिंदगी,
हार्बर लाइन पर दौडती लोकल में, कम से कम ढेड़-घंटे ही सही...
                                                                                                                      - विजय कुमार रात्रे

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