Monday, October 7, 2013

तुम वही थे


तुम वही थे

तुम वही थे ना?
जो मेरे एक इषारे पर उछल पड़ते थे,
आसमान से तारे तोड़ने को।
जो मेरे एक आंसू पर आतुर हो जाते थे,
सारा का सारा समुंदर उलट देने को,
और मेरी एक छोटी सी खुषी के लिए,
तत्पर रहते थे सारी दुनियां समेटने को।
तुम वही थे ना?
जो मेरे एक अनुरोध पर, या यूं कहूँ कि
मेरे कहने मात्र से उन मोटी से मोटी किताबों को,
छान कर लिख देते थे मेरे नोटस।
कड़ी घूप में बनते थे मेरी छाया
बरसात में मेरी छतरी, मेरे दर्द में मेरी दवा।
तुम वही थे ना?
जो मेरी बनार्इ कढ़ी-भात और पकौडि़यों को,
बिना रूके, खाने को टूट पड़ते थे किसी भूखे बच्चे की तरह,
मेरी चुन्नी से अपना मुंह पोंछते, और
बांधते थे पुल मेरी बनार्इ चाय की तारीफ के।
तुम वही थे ना?
जो बड़े भैय्या के कहने भर से, घंटों लाइन में खड़े रहकर,
लाते थे मेरे लिए एडमिषन के फार्म,
मेरे घर जाने के लिए रेल का टिकट।
तुम वही थे ना?
मेरे पीजी पास होने पर हुए थे
दुनियां में सबसे ज्यादा खुष, दी थी अपने दोस्तों में पार्टियां,
और अपनी बार्इक पर घुमाया था मुझे सारा शहर,
मुझे फिल्म दिखार्इ, आर्इसक्रीम खिलायी,
और तो और मुझे दिया था अपनी पहली कमार्इ से
पूरे के पूरे एक हजार का नोट,
खरीदा था मेरे लिए नया पर्स और नया सूट।
तुम वही थे ना?
जो मेरी माँ के चरणों को छूकर,
उसके सिराहने बैठकर करते थे घंटों बातें,
करते थे मेरी षिकायत, बताते थे मेरी कमजोरियाँ,
और बांधते थे ढाढ़स, देते थे उन्हें भरोसे की गोलियाँ।

तुम वही थे, बिल्कुल वही!
जिसे मैं अपना सबकुछ मानती थी,
समझती थी अपना जीवन, अपने सांसों का अभिन्न हिस्सा,
धड़कता था दिल जिसके लिए, बहता था लहू मेरी रगों में,
तुम्हारी एक झलक के लिए होती थी मैं कितनी बेचैन,
फिर अचानक....
तुम्हारा दिलो-दिमाग, तुम्हारे उसूल और आदर्ष,
तुम्हारी जात, तुम्हारा धर्म और तुम्हारा समाज,
और तुम्हारा सबकुछ आज मुझसे ऊंचा कैसे हो गया...
मैं और मेरी दुनियाँ तुमसे इतनी बेमेल क्यों हो गर्इ??
                                                       - विजय कुमार रात्रे (07 अक्टूबर, 2013)