एक नदी मेरी भी
आवाजों की नदी,
अंतर्तम के आलापों का झाग बनता और लुप्त होता,
अर्थहीन शब्द बुदबुदाते, गर्जनों के साथ मुंह पर आते और जाते,
मष्तिष्क में आते विचार जाते विचार।
संगीत की नदी,
प्रवाह का पवित्र गीत गुनगुनाती, मदमस्त बनाती,
कहीं नहीं जाना पर नीचे की ओर ही बहना है, घोर गहराई की ओर,
चाहे अनचाहे काम बनते और यूं हीं बह जाते।
ध्वनियों की नदी,
हंसती और रोती, बिलखती और ठहाके लगाती नही
गहराईयों को सतह पर ला पाना असंभव है,
भावनाएं उठती और धूमिल होती।
शांति की नदी,
सभी ओर से बहती अपने में समाती, एक नदी मेरी भी,
ध्वनियों की अनुपस्थिति से परे एक भयंकर एकांत की ओर,
जहां उसके बाद फिर कुछ भी नहीं उठता।
-विजय कुमार रात्रे
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